गोदान
देहातों में साल के छः महीने किसी न किसी उत्सव में ढोल-मजीरा बजता रहता है। होली के एक महीना पहले से एक महीना बाद तक फाग उड़ती है; आषाढ़ लगते ही आल्हा शुरू हो जाता है और सावन-भादों में कजलियाँ होती हैं। कजलियों के बाद रामायण-गान होने लगता है। सेमरी भी अपवाद नहीं है। महाजन की धमकियाँ और कारिन्दे की बोलियाँ इस समारोह में बाधा नहीं डाल सकतीं। घर में अनाज नहीं है, देह पर कपड़े नहीं हैं, गाँठ में पैसे नहीं हैं, कोई परवाह नहीं। जीवन की आनन्दवृत्ति तो दबाई नहीं जा सकती, हँसे बिना तो जिया नहीं जा सकता। यों होली में गाने-बजाने का मुख्य स्थान नोखेराम की चौपाल थी। वहीं भंग बनती थी, वहीं रंग उड़ता था, वहीं नाच होता था। इस उत्सव में कारिन्दा साहब के दस-पाँच रुपए ख़र्च हो जाते थे। और किसमें यह सामथ्र्य थी कि अपने द्वार पर जलसा कराता? लेकिन अबकी गोबर ने गाँव के सारे नवयुवकों को अपने द्वार पर खींच लिया है और नोखेराम की चौपाल ख़ाली पड़ी हुई है। गोबर के द्वार भंग घुट रही है, पान के बीड़े लग रहे हैं, रंग घोला जा रहा है, फ़र्श बिछा हुआ है, गाना हो रहा है, और चौपाल में सन्नाटा छाया हुआ है। भंग रखी हुई है, पीसे कौन? ढोल-मजीरा सब मौजूद है; पर गाये कौन? जिसे देखो, गोबर के द्वार की ओर दौड़ा चला जा रहा है। यहाँ भंग में गुलाब-जल और केसर और बादाम की बहार है। हाँ-हाँ, सेर-भर बादाम गोबर ख़ुद लाया। पीते ही चोला तर हो जाता है, आँखें खुल जाती हैं। ख़मीरा तमाखू लाया है, ख़ास बिसवाँ की! रंग में भी केवड़ा छोड़ा है। रुपए कमाना भी जानता है; और ख़रच करना भी जानता है। गाड़कर रख लो, तो कौन देखता है? धन की यही शोभा है। और केवल भंग ही नहीं है। जितने गानेवाले हैं, सबका नेवता भी है। और गाँव में न नाचनेवालों की कमी है, न गानेवालों की, न अभिनय करनेवालों की। शोभा ही लँगड़ों की ऐसी नक़ल करता है कि क्या कोई करेगा और बोली की नक़ल करने में तो उसका सानी नहीं है। जिसकी बोली कहो, उसकी बोले -- आदमी की भी, जानवर की भी। गिरधर नक़ल करने में बेजोड़ है। वकील की नक़ल वह करे, पटवारी की नक़ल वह करे, थानेदार की, चपरासी की, सेठ की -- सभी की नक़ल कर सकता है। हाँ, बेचारे के पास वैसा सामान नहीं है, मगर अबकी गोबर ने उसके लिए सभी सामान मँगा दिया है, और उसकी नक़लें देखने जोग होंगी। यह चर्चा इतनी फैली कि साँझ से ही तमाशा देखनेवाले जमा होने लगे। आस-पास के गाँवों से दर्शकों की टोलियाँ आने लगीं। दस बजते-बजते तीन-चार हज़ार आदमी जमा हो गये। और जब गिरधर झिंगुरीसिंह का रूप धरे अपनी मंडली के साथ खड़ा हुआ, तो लोगों को खड़े होने की जगह भी न मिलती थी। वही खल्वाट सिर, वही बड़ी मूँछें, और वही तोंद! बैठे भोजन कर रहे हैं और पहली ठकुराइन बैठी पंखा झल रही हैं। ठाकुर ठकुराइन को रसिक नेत्रों से देखकर कहते हैं -- अब भी तुम्हारे ऊपर वह जोबन है कि कोई जवान भी देख ले, तो तड़प जाय। और ठकुराइन फूलकर कहती हैं, जभी तो गयी नवेली लाये।
'उसे तो लाया हूँ तुम्हारी सेवा करने के लिए। वह तुम्हारी क्या बराबरी करेगी? '
छोटी बीबी यह वाक्य सुन लेती है और मुँह फुलाकर चली जाती है। दूसरे दृश्य में ठाकुर खाट पर लेटे हैं और छोटी बहू मुँह फेरे हुए ज़मीन पर बैठी है। ठाकुर बार-बार उसका मुँह अपनी ओर फेरने की विफल चेष्टा करके कहते हैं -- मुझसे क्यों रूठी हो मेरी लाड़ली?
'तुम्हारी लाड़ली जहाँ हो, वहाँ जाओ। मैं तो लौंड़ी हूँ, दूसरों की सेवा-टहल करने के लिए आयी हूँ। '
'तुम मेरी रानी हो। तुम्हारी सेवा-टहल करने के लिए वह बुढ़िया है। '
पहली ठकुराइन सुन लेती हैं और झाड़ू लेकर घर में घुसती हैं और कई झाड़ू उन पर जमाती हैं। ठाकुर साहब जान बचाकर भागते हैं। फिर दूसरी नक़ल हुई, जिसमें ठाकुर ने दस रुपए का दस्तावेज़ लिखकर पाँच रुपए दिये, शेष नज़राने और तहरीर और दस्तूरी और ब्याज में काट लिये। किसान आकर ठाकुर के चरण पकड़कर रोने लगता है। बड़ी मुश्किल से ठाकुर रुपए देने पर राज़ी होते हैं। जब काग़ज़ लिख जाता है और आदमी के हाथ में पाँच रुपए रख दिये जाते हैं, तो वह चकराकर पूछता है -- ' यह तो पाँच ही हैं मालिक! '
'पाँच नहीं दस हैं। घर जाकर गिनना। '
'नहीं सरकार, पाँच हैं! '
'एक रुपया नज़राने का हुआ कि नहीं? '
'हाँ, सरकार! '
'एक तहरीर का? '
'हाँ, सरकार! '
'एक कागद का? '
'हाँ, सरकार! '
'एक दस्तूरी का? '
'हाँ, सरकार! '
'एक सूद का? '
'हाँ, सरकार! '
'पाँच नगद, दस हुए कि नहीं? '
'हाँ, सरकार! अब यह पाँचों भी मेरी ओर से रख लीजिए। '
'कैसा पागल है? '
'नहीं सरकार, एक रुपया छोटी ठकुराइन का नज़राना है, एक रुपया बड़ी ठकुराइन का। एक रुपया छोटी ठकुराइन के पान खाने को, एक बड़ी ठकुराइन के पान खाने को। बाक़ी बचा एक, वह आपकी क्रिया-करम के लिए। '
इसी तरह नोखेराम और पटेश्वरी और दातादीन की -- बारी-बारी से सबकी ख़बर ली गयी। और फबतियों में चाहे कोई नयापन न हो और नक़लें पुरानी हों; लेकिन गिरधारी का ढंग ऐसा हास्यजनक था, दर्शक इतने सरल हृदय थे कि बेबात की बात में भी हँसते थे। रात-भर भँड़ैती होती रही और सताये हुए दिल, कल्पना में प्रतिशोध पाकर प्रसन्न होते रहे। आख़िरी नक़ल समाप्त हुई, तो कौवे बोल रहे थे। सबेरा होते ही जिसे देखो, उसी की ज़बान पर वही रात के गाने, वही नक़ल, वही फ़िकरे। मुखिये तमाशा बन गये। जिधर निकलते हैं, उधर ही दो-चार लड़के पीछे लग जाते हैं और वही फ़िकरे कसते हैं। झिंगुरीसिंह तो दिल्लगीबाज़ आदमी थे, इसे दिल्लगी में लिया; मगर पटेश्वरी में चिढ़ने की बुरी आदत थी। और पण्डित दातादीन तो इतने तुनुक-मिज़ाज थे कि लड़ने पर तैयार हो जाते थे। वह सबसे सम्मान पाने के आदी थे। कारिन्दा की तो बात ही क्या, राय साहब तक उन्हें देखते ही सिर झुका देते थे। उनकी ऐसी हँसी उड़ाई जाय और अपने ही गाँव में -- यह उनके लिये असह्य था। अगर उनमें ब्रह्मतेज होता तो इन दुष्टों को भस्म कर देते। ऐसा शाप देते कि सब के सब भस्म हो जाते; लेकिन इस कलियुग शाप का असर ही जाता रहा। इसलिए उन्होंने कलियुगवाला हथियार निकाला। होरी के द्वार पर आये और आँखें निकालकर बोले -- क्या आज भी तुम काम करने न चलोगे होरी? अब तो तुम अच्छे हो गये। मेरा कितना हरज़ हो गया, यह तुम नहीं सोचते।